रोग लगा है हर इंसान को
अरे मैं बड़ा हूं तुमसे प्यारे।
तू तू मय मय की आग में
जल और जला रहे हैं सारे।
प्यार नहीं दिलों में अपने
लगाते विश्व-बंधुत्व के नारे।
सीखें ज़रा प्रकृति से भी जो
मिलकर रहते चाँद सितारे।
ग़र झुका दें ख़ुद को हम
तो मिट जाएंगे झगड़े सारे।
ग़ैर नहीं कोई वैर नहीं है
सब लगे अपने मीत हमारे।
जिस मानव में मानवता नहीं
वो इंसान भला किस काम का।
चलती फिरती लाश हैं लोग वो
और लाश भला किस काम का।
धैर्य, क्षमा, करुणा नहीं है तो
विद्या का ज्ञान किस काम का।
बिस्तर है पर नेत्रों में नींद नहीं
मखमली सामान किस काम का।
धन से भरपूर हैं पर शांति नहीं
ऐसा धन भला किस काम का।
दुनिया जिसे सुख कहती है, वो
सुख भला है किस काम का।
तरक्की कर ली आज इंसानो ने
अपने बाहुबल ज्ञान व विज्ञान से।
भेद डाला अंतरिक्ष को भी ख़ुद
बड़े बड़े राकेट और वायुयान से।
मुँह पे बातें करे वो बड़ी बड़ी
पर दिल है अभी भी पाषाण से।
हासिल सब कुछ कर लिया पर
बच न सके हम सभी अभिमान से।
मानव में यदि मानवता होगी
खुशियां बरसेगी सारे जहान से।
“दीप” मिलेगा यश सम्मान सभी
शिक्षा, नम्रता प्रेम मीठी ज़ुबान से।
-दीपक कुमार ‘दीप’
इंसान ज़रूरतों के आगे लाचार
जैसे जैसे वक़्त बदल रहा है, समय के साथ साथ लोगों की ज़रूरतें और उम्मीदें भी लगातार बढ़ती ही जा रही है। इंसान ज़रूरतों के आगे लाचार हो जाता है और कई बार अभिमान में जानवर बन जाता है। हर ओर तू तू मय मय की आवाज़ें, सुनने को हमें सहज ही मिल जाती है। इसके अनेकानेक कारण हैं और इसका सबसे बड़ा कारण तो व्यक्ति का अहंकार है, जो उसे हर बार उसके व्यक्तित्व के आगे खड़ा कर देता है। इंसान फिर कठपुतली की भांति नाच और लोगों को नचा रहा होता है।
वो भला किस काम का
विश्व बंधुत्व और मानवता की बातें करने वाले लोग सिर्फ बातें ही करते हैं, उनका हक़ीक़त से कोई लेना देना नहीं होता है। ऐसे में जिस इंसान में इंसानियत ही न हो, वो भला इंसान किस काम का। ऐसा आदमी चलती फिरती लाश के समान होता है, जिसमें सिवाय अकड़ के अलावा कुछ और होता ही नहीं है, जो सम्पूर्ण मानव जाति के लिए ख़तरा है।
आदमी ने अपनी ज़रूरतों के हिसाब से सारे सामान बनाये हैं, सारी तरक्कियां भी हासिल कर ली हैं, लेकिन इन सबके बावज़ूद वो अभिमान से बच नहीं सके।
-प्रिय पाठकों से निवेदन
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