बुजुर्गों की कंपकंपाती आवाज़ से
आज की पीढ़ियां हिसाब मांगती है
आजीवन अनन्त कर्तव्यों की एक
ठोस मुकम्मल किताब मांगती हैं
तौर तरीकों से लेकर हर लम्हें की
बेटे सफाईयां किस कदर दूँ तुम्हें
आज भी तेरी इस नादानी पर
जी चाहता मोतियों से भर दूँ तुम्हें
तेरी परवरिश में सब कुछ गंवाया
तेरा हर कदम पर साया बनकर
खड़ा रहा अटल लाखों मुसीबतों में
तेरे संग घने वृक्ष की छाया बनकर
मैं जीना चाहता हूँ तेरी कामयाबी में
नाती पोतों समेत खुशियों के संग
इनमें अपना बचपन नजर आता मुझे
मेरे माता पिता ने भरे थे जिसमें रंग
तेरी हर जिद्द को दिन रात जाग कर
मैंने बड़ी खुशी खुशी बिताया है
डर के साए से दूर तेरे आँसुओं को
मोती समझ गिरने से बचाया है
कुछ नया नहीं किया मैंने तेरे लिए
ये युगों से चली आ रही जिम्मेदारी है
कल तक तुम बच्चे थे और अब मैं हूँ
सेवा करने की तो अब तुम्हारी बारी है
जो बोओगे वो ही काटने को मिलेगा
ये कहावत नहीं बल्कि एक सच्चाई है
बेहतर जानते हैं वो कीमत सदियों से
दुःखों में छिपी होती सुखों की परछाई है
जबरदस्ती न थोपें कुछ भी अपनो को
लोग सुधरते नहीं लाख मंदिर जा कर भी
नीयत बुरी झूठे दिखावे दुनिया को जनाब
कुचल डालते अरमां सब कुछ पा कर भी
–दीपक कुमार ‘दीप’
बुजुर्गों की कंपकंपाती आवाज़ से
यह पंक्ति आज न केवल समय के बदलते स्वरूप को व्यक्त करती है, बल्कि यह हमारे समाज के बदलते मूल्यों और दृष्टिकोण को भी उजागर करती है। तेजी से बदल रहे वक़्त में हम कहाँ खड़े हैं ये अपने आप में एक गंभीर विषय है, जहाँ जिम्मेदारियों से पीछे हटकर एक नई शक्ल दी जा रही है, रिश्तों की भी एक नई परिभाषा बन गई है। एक समय था जब बुजुर्गों को बड़े आदर व सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था, किन्तु आज के समय में इसकी उम्मीद करना कदाचित सही साबित नहीं होगा। अक्सर उपेक्षा और आलोचना का शिकार होते ये बुज़ुर्ग अपने आपको काफी अकेला और घुटन भरे माहौल वाला समझते हैं। अतीत के उनके अनुभव वर्तमान में उबाऊ के अलावा कुछ और नहीं लगते और उनकी कड़ी मेहनत और संघर्ष साधारण सी लगती है।
बुज़ुर्गों का संघर्ष और उनकी मेहनत
ये पंक्ति यह दर्शाती है कि आज की वर्तमान पीढ़ी बुजुर्गों से, जो उन्होंने जीया है, चाहे जैसे भी जीवन जीया, उसका हिसाब मांगती हैं। वे चाहते हैं कि बुजुर्ग लोग अपनी पूरी ज़िन्दगी के अनुभवों और संघर्षों को बिना किसी संकोच के हमारे समक्ष प्रस्तुत करें ताकि वे यह तय कर सकें कि आपने अपने जीवन कौन से महत्वपूर्ण कार्य किये हैं। लेकिन क्या यह ठीक है? क्या यह नफरत से भरी दृष्टि और कुंठा से युक्त विचार नहीं है? क्या हम अपने बुजुर्गों के अनुभवों और उनकी परंपराओं व शिक्षाओं को एक बोझ के रूप में देखते हैं?
बुजुर्गों की परवरिश
माता पिता अपने बच्चे के जन्म से लेकर जब तक वो इस योग्य नहीं हो जाता कि वो अपने मूल्यों, दायित्वों और अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक ना हो जाए, तब तक उसे एक अच्छी परवरिश देकर समाज में एक आदर्श जीवन जीने लायक बनाते हैं, फिर चाहे इस दौरान वो स्वयं कितने अनेकानेक कष्ट सह रहे हों, वो हर कदम पर साया बनकर, अटल खड़े होते हैं, लाखों मुसीबतों में भी, एक घने वृक्ष की छाया बनकर। ये उनका हमारे प्रति एक पिता की नि:स्वार्थ भावना और समर्पण होता है। बुजुर्गों की कंपकंपाती आवाज़ से आज हम भला और क्या मांग कर सकते हैं, कल तक जब हम सभी शिशु थे वो तो उन्होंने हमारी देखभाल की, हमें काबिल बनाया। आज उन्हें हमारी ज़रूरत है, मानते हैं कि हमारे पास काम बहुत है, फिर भी जितना वक़्त मिले हमें अपने बड़े बुज़ुर्गों को भी देना चाहिए।
बुज़ुर्गों की इच्छा
बुज़ुर्गों की एकमात्र इच्छा यही होती है, उनकी संतान उनकी बातें सुने और उनकी भावनाओं को समझ सके। उन्हें अपने व्यस्त कार्यक्रमों में से थोड़ा सा वक़्त निकाल कर दे, उनके पास बैठे। यही बुजुर्गों की कंपकंपाती आवाज़ से उनकी अंतरात्मा की आवाज़ है, जो बाहर घटित होते हुए देखना चाहती है।
हमें यह समझने और समझाने की आवश्यकता है कि कोई भी कर्तव्य या जिम्मेदारी केवल किताबों तक ही सीमित नहीं होती, बल्कि यह एक उच्च जीवन के साथ जु़ड़ी हुई वास्तविकता है, जिसे हम सभी लोग नकार चुके हैं, उसमें प्रेम, सहनशीलता, संघर्ष और बलिदान शामिल है।
-प्रिय पाठकों से निवेदन
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