राजा ने कहा मुझसे अब ये दायित्व संभाला नहीं जाता, ये सारे राजपाट ले लो। राजा नौकरी करने लगा, तब जा कर वो सुखी संपन्न हुआ। पढ़िए पूरी कहानी-
बहुत समय पहले की बात है, अमरावती में एक राजा था। जो अपनी पत्नी, बच्चों और प्रजा का एक कुशल प्रशासक की भांति ध्यान रखते हुए वर्षों तक सुखपूर्वक राज्य किया। किन्तु राज्य की बढ़ती सीमाओं और दायित्व से आए दिन नाना प्रकार की समस्याओं से राजा बहुत दुःखी रहने लगा था, उसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करें और क्या नहीं। दिन प्रतिदिन राजा की चिंताएं बढ़ने लगी, कि कैसे राज्य में सुख और समृद्धि, शांति लाई जाए। चिंता के मारे राजा को नींद भी नहीं आ रही थी, भूख प्यास सब ख़त्म हो चुका था। हालत तो ऐसी हो गई थी, कि वो स्वयं अपना राजपाट भी नहीं चलाना चाहता था। थक हार कर एक दिन राजा अपने सदगुरु के पास गया जो राज्य के बाहर अपनी कुटिया में रहते थे और अपनी सारी व्यथा उन्हें विस्तारपूर्वक सुना दी। राजा की बातें सुनकर गुरूदेव थोड़ा गंभीर हो कर बोले। इसमें इतना घबराने वाली बात है ही नहीं, राजा की ओर देखते हुए गुरुदेव ने कहा।
राजन! आप एक करिए- गुरुदेव ने कहा।
क्या गुरुदेव- मुझे कौन सा काम करना है, कृपा करके बताइए? – राजा ने गुरूदेव से कहा।
गुरूदेव ने मुस्कुराते हुए कहा- राजन आप अपना राजपाट अपने पुत्र को सौंप दो और वन चले जाओ। आपको समस्याओं से मुक्ति मिल जाएगी।
नहीं गुरूदेव पुत्र तो अभी बहुत छोटा है, वो भला कैसे इस दायित्व का निर्वाह कर सकेगा- राजा ने गुरूदेव से विनम्रतापूर्वक कहा
गुरूदेव, राजा के स्वभाव से परीचित थे उन्होंने कहा – एक काम करो अपना राज्य मुझे सौंप दो- गुरूदेव ने राजा से कहा
गुरूदेव की बातें सुनकर राजा ने कहा – हां ये ठीक रहेगा, जब अपने राज्य का दायित्व सौंप देंगे तो मुझे कोई चिंता नहीं रहेगी। अब मैं आराम से जंगल जा सकता हूँ। इतना कह कर राजा ने अपना राज्य गुरूदेव को सौंप कर जाने लगे।
गुरूदेव ने राजा से कहा – कहां जा रहे हो?
किसी दूसरे राज्य में जा कर कोई नया व्यवसाय शुरू करूंगा। जिससे मैं राजपाट के दायित्व के झंझट से दूर रहूंगा- गुरूदेव से राजा ने कहा
किन्तु कोई नया व्यवसाय शुरू करने के लिए तो तुम्हें धन की आवश्यकता होगी, वो कहां से लाओगे, तुमने तो अपना राज्य मुझे सौंप दिया है ना, इस हिसाब से तुम उस राजकोष से धन नहीं ले सकते हो- गुरूदेव ने कहा।
अब राजा तो धर्मसंकट में पड़ गया और मायूस हो कर बोला-फिर किसी के यहां पर नौकरी कर लूंगा और भला अब कोई उपाय नहीं है।
नौकरी ही अगर करनी है तो मेरे यहां पर कर लो- गुरुदेव ने कहा
राजा ने कहा- ठीक है गुरूदेव। पर काम क्या करना होगा मुझे?
गुरूवर ने हँस कर कहा- जो मैं कहूंगा और तुम्हारा दायित्व ये है कि ये राज्य तुम्हें संभालना है, इस सिंहासन पर बैठो और इसे ठीक तरह से चलाओ।
राजा को बहुत आश्चर्य हुआ, कमाल है पहले भी तो मैं यही काम करता था, इसी दायित्व से पीछा छुड़ाने के लिए तो मैं जंगल जा रहा था या किसी दूसरे राज्य जाना चाहता था, दोनो में क्या फर्क है?- राजा ने कहा।
खैर हृदय का संदेह मिटाते हुए और गुरुवर पर अपनी निष्ठा रखते हुए मन में सोचा- गुरूदेव ने कहा है तो अच्छा ही होगा। फिर क्या था, राजा अब प्रतिदिन दरबार में आने जाने लगा, रोज वही समस्यायों को सुनता और अपने निर्णय जनता को सुनाता। उसने एक बहुत बड़ा फ़र्क महसूस किया, अब उसे नींद भी अच्छी आने लगी, समस्त चिंताएं समाप्त हो गई, जो भी रुके हुए सारे काम थे, वो सभी होने लगे, राजा अब बेहद खुश रहने लगा था।
राजा को राजपाट चलाते हुए एक माह बीत चुके थे, तब गुरुदेव ने राजा को बुलाकर पूछा- अब क्या स्थिति है? राज्य का कार्य कैसा चल रहा है?
राजा ने कहा- मत पूछिए गुरुदेव, मैं किन शब्दों में आपका धन्यवाद करूं, समझ ही नहीं आ रहा है।
गुरुदेव ने कहा- ऐसा भला क्या कर दिया मैंने राजन!
राजा ने कहा- गुरुदेव मैं पहले भी वही कार्य करता था, आज भी वही कर रहा हूँ, किन्तु उस समय और आज वर्तमान में बहुत बड़ा अंतर है, पहले मुझे काम बोझ लगता था, मैं जीवन से ऊब चुका था। परन्तु अब मुझे बड़ा आनंद आ रहा है, मेरी सारी चिंताएं दूर हो गई हैं, जीवन खुशियों से भर गया है, जब से मैं यहाँ पर नौकरी कर रहा हूँ। हानि लाभ, जय पराजय सब कुछ आपका है गुरुदेव, बस इसीलिए मैं आनंदपूर्वक रह रहा हूँ।
निष्कर्ष:
इस कहानी से हमें भी यही शिक्षा मिलती है कि जब तक हम स्वयं को कर्ता अर्थात समस्त कार्यों को करने वाला मानते हैं, क्योंकि मनुष्य में सदैव कर्ता भावना बनी रहती है जिसके कारण अहंकार का जन्म होता है जो व्यक्ति के आगे आ जाता है और यही अहंकार हमें हमारे दायित्व से दूर कर देता है और तब तक हम दुःखों से घिरे रहते हैं, जैसे ही हम अपने आप को प्रभु को अपना सर्वस्व समर्पित कर देते हैं, फिर हम भी जीवन में रहते हुए अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए समस्त सुखों का आनंद लेते हुए तनावमुक्त और सुखपूर्वक जीवन जीते हैं।
दायित्व से पीछे मत हटो
हमें भी अपने दायित्व को बोझ समझने की भूल नहीं करनी चाहिए, जैसे हम यह समझते हैं एक परिवार की प्रति हमारा क्या दायित्व है, समाज और देश के प्रति हमारा क्या दायित्व है, फिर कभी भी हम लोगों को उससे भागना नहीं चाहिए, बल्कि अपने हर कर्म को प्रभु को समर्पित करके अपने हरेक दायित्व का बखूबी पालन करना चाहिए। अपनी जिम्मेदारियों से कभी मत भागो।
–दीपक कुमार ‘दीप’
-प्रिय पाठकों से निवेदन
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